नए टीम मेंबर्स का संस्था में सफर

“Journey of new team members into an organization” – To read this in English, please click here.

“संस्थेमध्ये नवीन सदस्यांचा प्रवास” – हा ब्लॉग मराठी मध्ये वाचण्यासाठी, येथे क्लिक करा

हम एक दोपहर बात करने लगे की जब लोग किसी नयी संस्था से जुड़ते हैं तो क्या चीज़े उनकी मदद करते हैं, इस बदलाव से साथ आगे बढ़ने में। मैं (रोहित) करीब ८ साल पहले एक वालंटियर के तौर पर अपनी शाला से जुड़ा, तब संस्था में कुल ८ लोग थे। और मैं (ललिता) इसी स्कूल-ईयर में चालू स्कूल सेशन में नवंबर में जुडी, जब संस्था में कुल ४३ लोग हैं। यहाँ हम दोनों अपनी बात-चीत के कुछ अंश पेश कर रहे हैं:

रोहित: ललिता, कैसे थे आपके शुरूआती दिन अपनी शाला में?

ललिता: मेरा खोज स्कूल में पहला दिन (याद भरी मुस्कराहट के साथ)! मुझे थोड़ा लेट हुआ स्कूल पहुँचने में तो मैं थोड़ा डर गई थी। मैं इस शहर में नयी हूँ और सुबह का ट्रेन टाइम भी पता नहीं था। जब मैं मॉर्निंग असेंबली में पहुंची तो स्टूडेंट्स हॅसते, नाचने, एन्जॉय करते हुए असेंबली कर रहे थे। ये सब देख के मेरे चेहरे पर खुद से ही एक स्माइल आ गई। मैंने संगीता दीदी (मेरी सुपरवाइजर और खोज की डायरेक्टर) से बात की। पहले तो मैं उन्हें संगीता टीचर कह के बुलाती  थी। लेकिन यहाँ के रिलेशंस कुछ ऐसे है की वो अपने-आप मेरे दीदी बन गए। सारा स्टाफ – टीचर्स, हेल्पर्स, काउंसलर, सोशल वर्कर, एडमिन – ये सब मेरे दीदी-भैया बने। जब शुरू-शुरू में, मैं बात करने में हिचकिचाती थी तो वनिशा दीदी, गुंजन भैया, और पुजा दीदी मुझे सामने से पूछते, “क्या हुआ, क्या बात है?” मेरे शुरुआत करने पर वो मुझे समझते और मानो कोई प्रॉब्लम ही नहीं था, ऐसा वाला रिएक्शन देके सलूशन ढूंढने में मदद करते थे। पहले मुझे लैपटॉप चलाना नहीं आता था, और यहाँ लेसन प्लानिंग वगैरह वैसे ही करते हैं, तो उसमे भी मुझे सबने हेल्प की।

रोहित आपने ने तो बहुत पहले ज्वाइन किया था। आपके लिए कैसे थे शुरुआत के दिन?

Hindi/Marathi Language Class, Grade 3, Khoj @ Limbuni Baug Mumbai Public School, 2022

रोहित: मुझे तो ये पिछले जन्म की बात लगती है। देखते-देखते कितने सारे साल बीत गए। सच बोलूँ तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं की मेरा पहला दिन कौन सा था, क्योंकि मैंने एक तरह से तीन अलग-अलग बार अपनी शाला ज्वाइन किया। २०१५ में एक वालंटियर के तौर पर, फिर २०१७ में खोज शुरू करने के लिए पार्टटाइम ज्वाइन किया, और फिर २०१९ में पार्ट-टाइम रोल से फुल टाइम हो गया। २०१५ में मैंने एक नया स्कूल ज्वाइन किया था और वहाँ मेरी सैटरडे-संडे छुट्टी थी। पहले मैं संडे को स्टूडेंट्स के साथ सोशल-लीडरशिप पर काम करता था। अमृता से बात हुयी और हमने सोचा की चूँकि अपनी शाला सामाजिक-भावनात्मक शिक्षा पर स्कूल के स्टूडेंट्स के साथ तो काम कर ही रही है, अगर हम उन स्कूलों के निकलने वाले और हमारे कम्युनिटीज के अन्य यूथ के साथ कुछ जारी रखे तो लॉन्ग-टर्म काम हो सकता है। तब अपनी शाला का ऑफिस TISS के कैंपस में था और वहां ये कर पाने की जगह नहीं थी। तो हमने एक दूसरी संस्था, सम्पूर्ण-अर्थ, के ऑफिस के बेसमेंट में यूथ प्रोजेक्ट शुरू किया। तभी मेरी ज्यादातर बातचीत अक्सर अमृता और विनायक, जो यूथ प्रोजेक्ट में मेरे साथ जुड़े, उनसे ही होती थी। फिर मेरे साथ कई और वालंटियर्स जुड़े, खासकर आकाश, प्रियंका, और शाहिद, जो काफी रेगुलर आने लगे। एक बात जो आपकी बात से मेल खाती है वो ये की, इतने सालों में भी अपनी शाला की एक बात सिमिलर लग रही है की यहाँ नए या अलग हो ऐसी फीलिंग मुझे भी नहीं दी गयी। और जो लोग थे, चाहे मयूरी हो, श्वेता हो, पल्लवी हो – जब भी उनको पूछा वो मेरे क्लास में वालंटियर करने आ जाते।

मैं सोच रहा हूँ ललिता, वो क्या बातें होती हैं किसी भी संस्था में, या अपनी शाला में है, जो किसी नयी टीम मेंबर को मदद करती हैं अपने काम को समझ के कर पाने में और संस्था का हिस्सा बन पाने में?

Youth Project, Batch 1, 2015

ललिता: मेरे लिए एक बड़ी चीज़ रही सुपरवीज़न। संगीता दीदी के साथ के साथ जब भी मेरी सुपरवीज़न मीटिंग होती, तो शुरू-शुरू में मेरे बहुत सवाल, सारी चीजों को जानने का कुतुहल, मैं कैसे कर पाऊंगी या मुझसे नहीं हो रहा है ऐसी फीलिंग रहती थी। एक बार मेरी एक क्लास मुझसे सम्भल ही नहीं रही थी। संगीता ने कहा, “इट्स ओके, हर दिन हमारा नहीं होता। चलो, सोचते हैं की हम और क्या ट्राई कर सकते हैं?”

शुरुआत में हमारा सुपरवीज़न कभी भी एक घंटा या कम वक्त में नहीं हुआ। २-३ घंटे डिसकशंस चले जाते थे। लेकिन फिर भी वो मुझे बहुत प्यार के साथ समझाते – सारी चीज़ों को एक साथ मत करो, डिसाइड करो की पहले क्या करना है, उसके बारे में सारी इनफार्मेशन दे देते, कैसे अप्लाई करना है उसके आइडियाज बताते, पर्सनल प्रॉब्लम भी समझ के लेते, मैं स्ट्रेस-फ्री रहो सकूं, इसके लिए भी उपाय बताना। एक अच्छा रिश्ता बन गया है। केयर के साथ बात होती है तो खुले मन से जो रहता है वो बता पाती हूँ। मीटिंग के शुरुआत अक्सर मैं कैसी हूँ, मेरे बच्चे कैसे हैं – इससे होती है। तो एक कम्फर्ट बिल्ड होता है। और फिर बाकी बाते आसानी से हो जाती है। इससे बहुत सारा पर्सनल प्रॉब्लम वाला टेंशन भी ख़त्म  हो जाता है। 

जिस दिन मेरा सुपरवीज़न मीटिंग होता था उस दिन में खुद को बहुत रिलैक्स फील करती थी, और अभी भी करती हूँ, मानो कुछ मुश्किल था ही नहीं। उनका एक्सपीरिएंस इतना और है की हम प्रॉब्लम का सलूशन चुटकी में निकाल सकते है। (हसते हुए) मेरे लिए तो जादू की छड़ी वाला काम होता था!

दूसरी चीज़ जो मेरे लिए काम की वो थी ट्रस्ट (अपनी शाला की एक वैल्यू)। शुरुआत में मुझे क्लास मैनेज करने में काफी दिक्कत होती थी, टाइम भी मैनेज नहीं होता था।  लेकीन फिर भी स्कूल के सभी स्टाफ मुझे कहते, “कोई बात नहीं, सब होगा। कोई और तरीका अपनाओ स्टूडेंट्स को और कैसे एंगेज रख सकते हैं? उनसे ही पूछो।” मैंने फिर अलग-अलग वीडियो या दूसरे टीचिंग ऐड का इस्तेमाल करना शुरू किया। उसमें भी टीम के लोग गाईड करते थे। लेकिन किसी भी दीदी या भैया ने मुझसे कभी भी नेगेटिव बात नही की। मुझपे भरोसा रखा की, होगा, जरूर होगा – ये मेरे लिए बहुत ज्यादा इम्पोर्टेन्ट था, कोई है जो आपपर आपसे ज्यादा भरोसा करता है, ये फीलिंग बहुत अच्छी है और काम करने के लिए बहुत प्रेरणादायी है। यहाँ टीम एक सपोर्ट सिस्टम की तहर काम करती है। 

तीसरा, शुरु के दिनों में मैंने दूसरे टीचर्स की क्लासेज ऑब्ज़र्व की। मैंने दूसरे स्कूलों में तो पढ़ाया है, पर यह समझना जरूरी था की यहाँ का काम कैसे होता है।  मैंने देखा की यहाँ पढ़ने के तरीकों में कुछ चीज़े जरूरी हैं, जैसे स्टूडेंट्स का आपस में कम्पटीशन या ऊपर-नीचे, आगे-पीछे ऐसा सोच नहीं रखना। साथ मिल के कैसे सभी आगे बढ़ सकते हैं ऐसे पढ़ने के तरीके इस्तेमाल करना। डिफ्रेंटिएटिएटिंग इंस्ट्रक्शन के बारे में जाना। पहले जिन स्कूलों में काम किया वहां स्टूडेंट्स को ही अलग कर देते थे। अभी देखा की कैसे टीचर अपने तरीकों को डिफ्रेंटिएट करते है।  पहले मैं प्लान करती थी ज्यादा फोकस इसपर रहता था की खुद को कैसे पढ़ाना पसंद है और सिलबस ख़त्म करना है । यहाँ स्टूडेंट्स की जरूरते क्या हैं, ये जानने की कोशिश करते हैं, और उसको ध्यान रख प्लानिंग करते है। 

मैं ग्रेड २ में जब एम्पथी पर बात हो रही थी, SEL सेशन के दौरान, उसको ऑब्ज़र्व करने गयी। वहां जिस तरीके से बाते हो रही थी, उस वक़्त एक बात नज़र आयी खुद की जिंदगी के बारे में की कभी मुझसे ही मेरे टीचर्स ने, स्कूल से ले के कॉलेज तक, ऐसे खुल के बात ही नहीं की। पहली बार स्टूडेंट-टीचर को ऐसे बात करते देखा। टीचर सवाल पूछ-पूछ कर स्टूडेंट्स से ही उनके मन की बातें निकलवा रहे थी, और लगभग सभी स्टूडेंट्स पार्टिसिपेट कर रहे थे। 

ये बाते और पुख्ता हो गयी जब सुपरविज़न में लेसन प्लान रिव्यु होने लगे। उसमे पता चला की अलग-अलग स्टूडेंट्स के बारे में कैसे सोचना चाहिए एक क्लास का प्लान बनाते वक़्त। 

रोहित: जब मैं जुड़ा था तब ये सारी चीज़े तो थी नहीं, या इस रूप में नहीं थी, तभी संस्था भी काफी छोटी थी। लेकिन एक चीज़ कॉमन थी – मेरे सेशंस के ऊपर भी अमृता और मैं रिव्यु किया करते थे, मुझे डाउट आता की क्या कर सकते हैं और क्या नहीं, तो मैं उससे पूछ लिया करता था। और ट्रस्ट वाली बात मेरे लिए भी थी। हालांकि उस समय ट्रस्ट हमारी संस्था की वैल्यूज का हिस्सा तो नहीं था, पर सभी टीम मेंबर्स ने एक ट्रस्ट दिया की भले ही मैं एक वालंटियर हूँ, पर फिर भी मैं ये कर सकता हूँ। उन्होंने मुझे कॉमन बाते – जो अपनी शाला की गाइडलाइन या फिर चाइल्ड प्रोटेक्शन पालिसी, सेशन में किन बातों का ध्यान रहे (पानी, टॉयलेट, वैगरह है की नहीं स्टूडेंट्स के लिए) ये सब बताया – और फिर ट्रस्ट किया है मैं इनका ध्यान रखूंगा। चूंकि मेरे सेशन संडे को होते थे, टीम से और कोई तो नहीं आता था देखने के लिए। तब ये और जरूरी था की मैं भी पूरी ईमानदारी से जो एग्री किया, वो करूँ। तो जब कुछ गड़बड़ हो जाती थी – जैसे मैंने एक बार एक स्टूडेंट को क्लास से निकाल दिया था – तब उसी दिन अमृता को फ़ोन कर से सब बताया। उसने भी मुझे सुनकर लिया फिर हमने डिसकस किया कि मुझसे क्या गलती हुयी और उसको कैसे ठीक करना है। 

दूसरी चीज़ जो मेरे लिए काम की, खासकर जब मैंने पार्ट टाइम ज्वाइन कर लिया था, वो थी टीम के प्रोफेशनल डेवलपमेंट के मौके (जैसे माइंडफुलनेस और डाइवर्सिटी शाला), गेम्स नाइट्स, रिट्रीट्स या फिर बस समय-समय पर छोटे छोटे सेलेब्रेशन्स। चूंकि खोज में काम करते वक़्त हम ज्यादा समय या तो कम्युनिटी में रहते थे या फिर डोनर/पार्टनर्स के साथ मीटिंग्स में, तो ऑफिस में बाकी टीम के साथ रिलेशन बनाने के डे-टू-डे वाले मौके काम थे। तो जब ऐसी एक्टिविटीज होती हैं तो फिर वो समय मिल पाता है, एक-दूसरे के साथ रह पाने का, सीख पाने का, रो पाने का, रिफ्लेक्ट कर पाने का – और जब ये सब एक साथ कर पाते हैं तो एक-दूसरे के साथ जुड़ पाते हैं हमारे विज़न की तरफ। 

(तभी अभिजीत, जो अपनी शाला के SEL प्रोग्राम टीम का हिस्सा है, वहाँ से गुजर रहे थे।) 

अभिजीत, क्या तुम्हारे पास अगर ५ मिनट हैं तो तुम हमारे साथ थोड़ा शेयर करोगे की तुम्हारे लिए क्या काम किया जब तुमने ज्वाइन किया था?

अभिजीत: मेरे लिए जो स्टार्टिंग में सभी स्टाफ, नए या पुराने, का ओरिएंटेशन होता है वो काफी मददगार रहा। उसमे सभी तरह के रोल के लोग होते हैं, पूरी संस्था होती है, पर शुरू में कोई किसी के रोल नहीं जानता तो हम बस सबसे खुल के बाते करते हैं। वहाँ पर ही हल्का सा बैरियर ब्रेक हो जाता है। हमारे लंच भी बहुत मदद करते हैं, जहाँ हम एक-दूसरे के साथ थोड़ा टाइम स्पेंड करते हैं। टीम-बिल्डिंग और स्टाफ इंगेजमेंट की अलग-अलग फन एक्टिविटीज भी घुलने मिलने में मदद करती हैं।  इसके साथ मेरे लिए ये भी जरूरी था की मैं भी इनिशिएटिव लूँ संस्था को समझने और एक रिश्ता बनाने का। 

All Staff/Fellows Orientation, June 2017

ललिता: थैंक यू, अभिजीत भैया (अभिजीत चले जाते हैं)। मैं ये भी सोच रही हूँ की मैंने यहाँ आके कुछ चीज़े सीखीं जो पहले नहीं पता थी। जैसे की SEL मैने यहाँ पर आने के बाद ही देखा, समझा, और सीख रही हूँ। शुरुआत में बहुत से क़्वेश्चन थे, कन्फूज़न था की ऐसे ये कैस हो सकता है। मैंने सभी के क्लास ऑब्ज़र्व किये, और जाना की ये सच में स्टूडेंट्स में  अवेयरनेस लाने के लिए बहुत जरूरी है। उनमे आस-पास की चीजों में खुद के लिए सही-गलत की पहचान, सिचुएशन कैसे हैंडल करना चाहिए, मना करना आना चाहिए, कहाँ पे काइंडनेस दिखाना है, कहाँ मदद करनी है, कहाँ नही करनी। स्टूडेंट्स खुद कम्युनिटी में होने वाली घटनाएं ऑब्ज़र्व करते है, और उसमे क्या ठीक है और क्या नहीं इसकी पहचान खुद करते हैं। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था की स्टूडेंट्स खुद से बोल रहे थे। उनके एक्सपीरियंस शेयर कर रहे थे। जैसे की एक दिन जब काइंडनेस के ऊपर बात चीत हो रही थी तो तालीम, ग्रेड २ स्टूडेंट, ने कहा, “हमें काइंडनेस दिखानी चाहिए और हेल्प करना चाहिए। पर एग्जाम में नहीं करना है क्यों की वह उसको खुद से करना होगा।” मैं यहाँ सीख रही हूँ की मैं हिंदी और मराठी पढ़ाते वक़्त भी स्टूडेंट्स का सामाजिक-भावनात्मक विकास के लिए भी कैसे मौके बना सकती हूँ। इसको भी मैंने मेरी क्लास में भी ट्राई किया। एक दिन मैंने हिंदी में स्टोरीटेलिंग की क्लास में एक कौवे-तोते की स्टोरी ले के गयी जहाँ हिंदी पढ़-सुन पाने के साथ स्टूडेंट्स काइंडनेस पर भी बात कर पाए। 

अपनी शाला में काम कैसे होता, है, कैसे करना है क्या जरूरी है, किस पर ज्यादा ध्यान देना है, क्या कब डी-प्रिऑरिटाइज़ करना है, ऐसी कई बातों पर साल के शुरू में ही, और जहाँ जरूरत हैं वहाँ साल के बीच बीच में ट्रेनिंग दी जाती है। मैंने नवम्बर में जॉईन किया था तो मैंने जून में होने वाली ट्रेनिंग मिस कर दी। लेकिन संगीता दीदी, साएशा दीदी और दूसरे खोज के टीम मेंबर्स ने मुझे वो सारी चीज़े समझाई जिससे मैं आसानी से अपना काम कर पाऊँ। 

मैंने अपनी शाला में एक और बात देखी की स्कूल में जो कुछ भी करना है, उस पर पहले मीटिंग होता है, उसपर बातचीत करके आसान तरीका ढूंडा जाता है, उसे कैसे अप्लाई करना है वो सोचा जाता है, उसका प्रॉपर फॉर्मेट तैयार करके, फिर अप्लाई किया जाता है। फायदे, नुकसान, सही, गलत और हर के हिसाब से क्या ठीक है, ये नजर से देखकर ही उसपर फायनल डिसीजन लिया जाता है, जो अप्लाई करने के लिए भी आसान होता है, और उसके अच्छे इफ़ेक्ट भी दिखाई देते है। 

All Staff/Fellows Orientation Day 1, June 2022

ये सोचते हुए मैं ये भी देख पा रही हूँ की अपनी शाला में बहुत कुछ चल रहा होता है। और नए टीम मेंबर के लिए खासकर के थोड़ा थकान ले कर आ सकता है। जैसे की कई लोगों ने मुझे ये बताया की जब हम स्कूल के बाद ट्रेनिंग्स के लिए ऑफिस जाते हैं तो कई बार मुश्किल हो जाती है, और स्कूल से आने की थकान उस पर असर डालती है। इसको एड्रेस करने के लिए अक्सर स्कूल और नेक्स्ट मीटिंग/ट्रेनिंग के बीच ट्रांजीशन प्लान किये जाते हैं। जैसे की ट्रेनिंग शुरू होने के पहले कोई फन गेम्स या माइंडफुलनेस प्रैक्टिस करते हैं। 

रोहित: ललिता, मैं देख रहा हूँ की किस तरह किसी भी संस्था में नए टीम मेंबर्स के ज्वाइन करने के वक़्त  कई बार छोटे-छोटे एक्शन्स सपोर्टिव हो सकते हैं। साथ ही HR के अलग-अलग प्रोसेसेज और सिस्टम्स जैसे की ट्रेनिंग और सुपरविज़न, और संस्था का कल्चर और मूल्य (वैल्यूज) कितना इम्पोर्टेन्ट रोल प्ले करते हैं।

दोनों: हम यह समझते हैं की हमारे अनुभव अन्य लोगों से काफी अलग हो सकते हैं। इसलिए हम हमारे सभी रीडर्स को अपने अनुभवों को कमैंट्स बताने के लिए आमंत्रित करते हैं। शेयर करें की किसी भी संस्था में जुड़ते वक़्त क्या चीज़े हमारे शुरूआती सफर को मुश्किल या आसान बना सकती हैं। 


ऑथर्स के बारे में:

ललिता अपनी शाला के खोज स्कूल में हिंदी/मराठी भाषा टीचर के रोल में काम करती हैं। इसके पहले वे सनशाइन इंग्लिश मीडियम स्कूल में काम कर चुकी हैं। उनको शिक्षा के छेत्र में काम करना बहुत पसंद हैं। 

रोहित अपनी शाला में स्ट्रेटेजी, फण्डरेज़िंग एंड कम्युनिकेशन्स, और SEL करिकुलम पर काम करते हैं। अपनी शाला के पहले वे रेव टेक्नोलॉजीज, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज, आकांक्षा फाउंडेशन, और अमेरिकन स्कूल ऑफ़ बॉम्बे में काम कर चुके हैं।

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