सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा के कई रूप और पहलू हो सकते हैं। हमारे बच्चे, और बड़े, इस अलग-अलग तरह से समझते और जिंदगी में अपनाते हैं।
जैसे कि मैं अपने बच्चों और परिवार से कहती हूँ की हमें हर इंसान की कदर करनी चाहिये। हर इंसान की अपनी भावना होती है उन भावनाओ को हमें समझना चाहिए, वह हमसे बड़ा हो, या छोटा, या किसी अलग धरम का। हमें किसी के बारे में गलत नहीं बोलना चाहिए। हमेशा जिसे मदद की जरूरत हो उनकी मदद करना चाहिये।
जब मैं अपने बारे में सोचती हूँ, तो मुझे खुद पहले बहुत ग़ुस्सा आता था पर मैंने SEL के ट्रेनिंग के बाद, ग़ुस्सा आने पर क्या कर सकती हूँ इसको समझने की कोशिश करती हूँ। जैसे कि मैं बाहर चले जाती हूँ या अकेले रहना पसंद करती हूँ। और अगर किसी पर ग़ुस्सा आ जाये तो शांत रहना की कोशिस करती हूँ ताकि फिर सोच सकूं की अभी कैसे जवाब देना है। सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा में हम खुद के और बच्चों दोनों के ही सामाजिक और भावनात्मक कौशल पर काम करते हैं।
स्कूल में भी दो बच्चे थे जो बहुत ग़ुस्सा करते थे। वह दूसरे बच्चों के साथ झगड़ा और मार-पिट कर लेते थे, अक्सर जिद्द करने लगते और किसी की बाते न मानते थे। हमने उन बच्चों से अलग-अलग करके बात की और उन्होंने ने बताया की उनके घर में हमेशा झगड़ा चलता रहता है। कई बार बच्चे जो देखते हैं वो तरीके जाने-अनजाने अपना लेते हैं। इसको और बेहतर समझने के लिए हमने उनके परिवार से बात की। उन्होंने भी बताया की झगड़े क्यों हो जाते हैं। हमने उनसे रिक्वेस्ट की, “आप अपने बच्चों के सामने ना लड़े, इससे बच्चे पर बुरा असर होता है।” और वह परिवार ने हमारी बात सुनी और कोशिश करना शुरू कर दिया। बच्चों के स्व-प्रबंधन (या सेल्फ-मैनेजमेंट) को समझने के लिए यह भी समझना जरूरी है की वो जो कर रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं।
स्कूल में हम साथ काम करते है। एक बच्चा ऐसा था उसको देख, मुझे लगता था कि वह स्पेशल चाइल्ड है और शायद पढाई ठीक से न कर पाए। पर जब उसके साथ काम करने लगी तो उसकी खूबियाँ मालूम हुयी। वह बच्चा हर लेटर को पहचान लेता था। उसका ध्यान और नज़र कही और रहता था, लेकिन उससे क्लास की हर चीज़ याद रहती थी। वह हमेशा मेरे साथ रहता थी। उसका देख बाल करने में मुझे अच्छा लगता है। ख़ोज में काम करते हुए यह समझ आया की कैसे अपने पहले से बनी धारणाओं को हम बदल सकते हैं। SEL हमारे अंदर स्व-जागरूकता पैदा करता हैं और हमारे बच्चों के साथ और बेहतर काम करना सिखाता है।
SEL का एक कौशल है, सामाजिक जागरूकता। ये हम हमारे बच्चों में प्ले टाइम के दौरान ख़ास कर देख पाते हैं। कोविड के पैन्डेमिक के पहले जब स्कूल क्लासरूम में होता था, तब हमारे स्कूल में रोज मॉर्निंग रूटीन और प्ले टाइम होता था। बच्चे खिलौना से अलग-अलग चीज़ बनाते। उनके खेल में हम देख पाते थे की वे अपने आस-पास के समाज को कैसे ध्यान दे रहे हैं, जैसे की कम्युनिटी में कौन से फेस्टिवल होते हैं, वो उसको बनाते है, कम्युनिटी में और क्या होता है, वो लोग जो देखते है वो बनाते। फिर हम सब उसपर बात कर पाते थे।
पिछले साल हमारे स्कूल में एक बच्चा आया जो बात नहीं करता था और न हमारी बात समझता था। पर हमने कोशिश की उस बच्चे से बात करने की, उसे समझने की और उसके भावना समझने की कोशिश की। हम उसको कलर और खिलौना दे कर उससे बात करने की कोशिश करते थे। स्कूलों में जब अलग-अलग कौशल वाले बच्चे आ सके और एक दूसरे के साथ रह कर सीख सकें और सभी बच्चों सामाजिक जागरूकता और बढ़ती है और हम एक समावेशी स्कूल बना पाते हैं।
हमने जबसे ख़ोज में काम करना स्टार्ट किया है तब से कम्युनिटी के लोग हमारा बहुत सम्मान करते हैं। कम्युनिटी में लोग रोज झगड़ते है। कई बार झगडे चीज़ो की कमी, आपसी रिश्तों, गरीबी और हक़ की चीज़े न मिलने के कारण होता है। पर अच्छी बात यह है की अगर कोई मुसीबत में है तो सब साथ एक दूसरे की मदद और सपोर्ट करते है। यही बात हम कोशिश करते हैं की हमारे बच्चे सीख सकें की कैसे मतभेद और झगड़ों को सुलझाते हुए एक दूसरे के साथ मदद कर करुणा की भावना के साथ रहा जा सकता है।
लेखकों के बारे में:
सीता देशमुख अपनी शाला फाउंडेशन के ख़ोज कम्युनिटी लर्निंग सेन्टर की फॉउन्डिंग हेल्पर हैं। बच्चों और स्कूल की देखभाल के साथ ही, सीता को अकेले गाना गाणा पसंद है।
माला नायडू अपनी शाला फाउंडेशन के ख़ोज कम्युनिटी लर्निंग सेन्टर में हेल्पर हैं और एक पैरेंट भी। ख़ोज के काम के साथ, माला को इंग्लिश बोलना और सीखना पसंद है।
अपने रोल में, सीता और माला बच्चों, परिवारों और कम्युनिटी के अन्य लोगों के साथ ख़ोज के द्वारा एक अच्छी शिक्षा मिल सके इसकी कोशिश करती हैं। दोनों ने टीम के साथ मिलकर इस पैंडेमिक के दौरान ख़ोज रिसोर्स सेन्टर बनाया और उसको मैनेज किया ताकि बच्चे अपनी शिक्षा के साथ जुड़े रहें।